सेवा की साध लिये बढता हूँ।
जिसकी मिट्टी से अन्न मिला,
हो गया पुष्ट मेरा तन-मन।
जिसकी संस्कृति की अमर धार,
है सींच गयी मेरा जीवन।
जिसकी ज्ञानात्मा की सुरभि मुझे
सिहरा कर देती नवजीवन।
उस स्वदेश को मैं शत-शत नमन मंत्र पढता हूँ।
सेवा की साध लिये बढता हूँ॥
गंगा-यमुना की धारायें,
हिमगिरि की पर्वतमालायें,
और इसका वैभवशाली वह अतीत,
संचित जिसमें अगणित ज्ञान रश्मियाँ।
तक्षशिला-नालन्दा के वे ज्ञानदीप,
जिनसे पाये इस विश्व ने मूलमंत्र।
पा जन्म यहाँ, मैं स्वयं को धन्य समझता हूँ।
सेवा की साध लिये बढता हूँ॥
राम-कृष्ण की जन्मभूमि,
शिवि-दधीचि का यह स्थान।
धरा वही है यह, जिसपर
लेते जन्म स्वयं भगवान।
प्रसूभूमि है महापुरूषों की,
देता जगत जिसे सम्मान।
उस मातृभूमि को मैं अपने जीवन सुमन अप्रित करता हूँ।
सेवा की साध लिये बढता हूँ॥
करता हूँ प्रार्थना बस एक ही,
समर्पित रहूँ सदा इसके लिये ही।
हे भगवन्! देना मुझे मृत्यु यहीं।
यदि आऊँ इस जग में फिर कभी
तो यही हो मेरी जन्म-कर्म-मरण भूमि,
जिससे मैं फिर गर्व कर सकूं स्वदेश पर।
हाँ! यही पौध मन में पल्लवित करता हूँ।
सेवा की साध लिये बढता हूँ॥
सितंबर १९८८
दीनदयाल विद्यालय
कानपुर
[ इस कविता के लिये दीनदयाल विद्यालय में कविता प्रतियोगिता के पल्लव वर्ग (कक्षा ९ - १०) में मुझे प्रथम पुरस्कार मिला था। ]