शिथिल हुये क्यों कदम तुम्हारे,
मंजिल का क्या भ्रम हो आया?
सतत, सनातन जीवन धारा,
अविरल बहती क्या बिसराया?
देख जरा तू मुड़ कर पीछे,
जीवन की यह राह थी कैसी?
क्या कहता अब तक का अनुभव,
फिर आज तुम्हारी स्थिति कैसी?
कर चिंतन-मनन, आत्म अवलोकन,
क्या खोया और क्या है पाया?
शिथिल हुये क्यों कदम तुम्हारे,
मंजिल का क्या भ्रम हो आया?
लक्ष्य कठिन था, रात थी काली,
क्षमता पर था सबको संशय।
सबकुछ था प्रतिकूल; निडर हो
पा ली तूने ताल-छंद-लय।
"दॄढ निश्चय और कठिन परिश्रम",
गीत अनोखा तुमने गाया।
शिथिल हुये क्यों कदम तुम्हारे,
मंजिल का क्या भ्रम हो आया?
बस पाकर एक विजय भर ही,
तू अनुपम मंत्र वह भूल गया ?
सोचा, जीवन पथ इतना ही था,
या फिर न पायेगा शूल नया ?
असफलता ही नियति थी तेरी,
जो श्रम भूला औ' समय गंवाया।
शिथिल हुये क्यों कदम तुम्हारे,
मंजिल का क्या भ्रम हो आया?
विजय का फिर संकल्प ले तू,
छोड़ दे यह अवसाद - निराशा।
असमंजस का भाव तू त्यागे,
हो कितना भी घना कुहासा।
उठ, चल, और चलता ही चल,
हो धूप कठिन, न तनिक हो छाया।
शिथिल हुये क्यों कदम तुम्हारे,
मंजिल का क्या भ्रम हो आया?
१४ सितंबर १९९५
I.I.T. कानपुर