[मधुप :]
सोचता, क्या कहूँ? कैसे कहूँ?
सत्य है, परिचय नया है,
पर मन को तुमने यूं छुआ है,
खोजता जो फिर रहा था,
लग रहा कि आज पाया।
कली! मैं मन-प्राण लाया!
न जाने ये बात कैसी,
सुरभि तेरी लगती है अनुपम,
स्पर्श तेरा भर देता जीवन!
ये अनुभव तर्क से परे है,
सो प्रेम का उपहार लाया।
हे कली! मन-प्राण लाया!
[कली :]
हे मधुप! तुम हो भावुक,
अपरिपक्व अभी तेरा मन है।
कांटों से भरा ये जीवन है।
भावातिरेक उतरने पर जानेगा
आसक्ति भरा तेरा प्रण है,
ये प्रेम नहीं, आकर्षण है!
[मधुप :]
पहले मैने भी सोचा था
भावुकता से भरा ये अर्पण है,
ये प्रेम नहीं, आकर्षण है!
पर सोचो अंतस के सुख-दु:ख,
मात्र तुम्हीं को क्यों बतलाता?
सामीप्य तुम्हारे क्यों सुख पाता?
यदि ये आकर्षण भर है,
तो क्यों मन में सूनापन है?
क्यों रिक्त पङा ये जीवन है?
अच्छा मुझको बतलाओ जरा,
क्यों देख मुझे खिल जाती हो?
क्यों आँखों से मुस्काती हो?
[कली :]
हे मधुप! इन प्रश्नों का उत्तर,
तुम्हें स्वयं ढूंढना होगा।
अपने मन को मथना होगा।
पर अब भी मुझे ये लगता है
कि मन तुम्हारा है चंचल,
बस कुछ दिन की है हलचल।
यदि प्रश्न मेरे मुस्काने का है,
तो जीवन है सौरभ बिखराना,
कांटों में भी खिल-खिल जाना।
पर इतना मैं कहती हूँ --
है मुझको तुझसे प्यार नहीं।
मन पे तेरा अधिकार नहीं।
[मधुप :]
तो क्या ये मेरा भ्रम था
कि तेरे मन में भी प्रीति बसी,
मेरे लिये मधु रीति बसी?
कली! तुमने ये झूठ कहा
कि तेरे मन में आग नहीं,
मेरे लिये अनुराग नहीं।
क्या तू इससे डरती है कि
हम दोनों की प्रकॄति भिन्न?
आचार, रूप, श्रंगार भिन्न?
यदि ऐसा है तो बोल जरा,
है मकरंद जो तेरे अंतस का,
क्या भिन्न मधु मेरे मन का?
[कली मौन रहती है.]
[मधुप :]
आह! तेरा ये निष्ठुर मौन!
तो साथ मेरे न आओगी,
मुझ संग न प्रीति रचाओगी।
जाता हूँ, पर ये सुन ले,
आऊँगा न फिर लौट कभी।
तू मनुहार करे चाहे जितनी।
[मधुप, स्वयं से :]
मन! यह जीवन का अंत नहीं।
यह सांझ नहीं, सबेरा है,
निस्सीम व्योम सब तेरा है!
चल, आहत मन अब चल।
हाँ! दु:ख ने तुझको मीत चुना,
पर तू जग को संगीत सुना!
जून १९९८
Lowell, MA, USA