आज तुम्हें कुछ कर जाऊँगा।
रंग सुनहरे झिलमिल-झिलमिल जीवन में भर जाऊँगा।
मैं तो जैसे बादल गहरे,
तुमने मन पे रखे पहरे,
पर क्या रोक सके वो मुझको
अंदर आँगन तक आने से?
आज उसी आँगन में बरसूगाँ, तुमको भी बरसाऊँगा।
आज तुम्हें कुछ कर जाऊँगा॥
फूलों की पंखुङियों सी यादें,
कुछ मीठी, कुछ तीखी बातें,
मन की उलझन को कहतीं,
और कभी चुप रहती आँखें।
सब सहेज कर रखा है मैनें, तुमको भी दिखलाऊँगा।
आज तुम्हें कुछ कर जाऊँगा॥
देखे हैं कितने ही सपने,
संग तुम्हारा, पल हों अपने।
वर्षों लंबे दिन काट कर,
मैं आया हूँ तुमसे मिलने।
अधरों में मुस्कान और सांसों मे खुशबू भर जाऊँगा।
आज तुम्हें कुछ कर जाऊँगा॥
जुलाई १९९९
बंगलौर