अनगिन रातों में जल-जल कर,
आंधी-तूफानों से लड़ कर,
जीवन की यह बाती झुलसी,
राख हुई, चिंगारी हुलसी,
आशाओं का दिया है रीता।
शायद अब अँधियारा जीता।
रुक कर पीछे नजर घुमाऊँ,
कितनी ही यादों को पाऊं।
गंगा के एक घाट किनारे,
हम दीपक जलते थे सारे,
एकाकी कर गई एक धारा।
लगता अब उजियारा हारा।
लहरों के संग बहते-बहते,
बिखरन की पीड़ा को सहते,
कितने दूर हो गए अपने,
फिर मिलने के बस हैं सपने,
लगता है जैसे युग बीता।
शायद अब अँधियारा जीता।
दीवाली का पर्व है आया,
मन में घोर अँधेरा छाया,
बाहर दीपक से जग-मग है,
पर अंधमय भीतर का जग है।
फिर से विधना ने ललकारा,
लगता अब उजियारा हारा।
विधना का आशीष अपरिमित,
कठिन कसौटी रचता नव नित।
हो कितना ही व्यग्र प्रभंजन,
निरत वर्तिका, अथक स्पंदन,
फिर भी धूम कलुष ही देता।
शायद अब अँधियारा जीता।
प्रस्तुत जीवन भर जलने को,
उद्यत जग दीपित करने को।
इतनी ही अभिलाषा किंचित,
स्नेह-घृत से रहूँ सुपोषित,
उद्वेलित लौ ने बहुत पुकारा।
लगता अब उजियारा हारा।
क्या तम का कर दूँ अनुमोदन?
सहूँ श्रांति का नीरव रोदन?
सुने विकट नियति की छलना!
नि:स्पृह कर्म है लौ का जलना।
हो ले कुत्सित कुटिल रचयिता।
दीपक का संघर्ष है जीता!
दीपक का संघर्ष विजेता!
२९ अक्टूबर २००८
(दीपावली २००८)
बैंगलोर