दिग्भ्रमित सा ढूँढता था
स्नेह की कुछ मृदुल छाया,
मार्ग के संकेत चिन्ह, कोई
सहपथिक अपना-पराया।
पर लक्ष्य ही जब सशंकित,
मार्ग का क्या हो आशय?
नैराश्य के स्वर पूछते हैं --
बोल मन! क्या जय-पराजय?
अस्तित्व का तेरे धरा पर
स्पष्ट कर क्या है प्रयोजन?
गंतव्य तो पहले नियत कर,
करना फिर पथ का चयन।
स्वप्न की इस मरूधरा पर
उग रहा फिर आज संशय!
है विफल फिर आज निश्चय!॥१॥
भविष्य में कुछ न दिखे तो
अतीत का ही है सहारा,
स्मृतियों के लघु दीप लेकर
आज के तम को निहारा;
गत-गर्भ से ही जन्मता है
अद्य का अभिशाप काला,
गत-कर्म से ही प्रज्वलित
वर्तमान का है उजाला।
कर्म की आहुतियों का
गुन-गुन किया मैंने निरूपण,
विक्षोभ से भर उठा मन
याद कर कुछ विगत प्रकरण।
अवसाद के अनुरोध पर
जग रहा फिर आज संशय!
है विकल फिर आज निश्चय!॥२॥
आक्षेप कर, संसार प्रतिपल
सत्य का दु:प्रमाण मांगे।
तर्क दूँ जो, तथ्य दूँ जो,
प्रवंचना कह प्राण मांगे!
मैं विवश हो तब कहूँ कि
सिद्ध कर अपराध मेरे!
चुनौती हे! विश्व तुझको,
कर प्रमाणित साक्ष्य तेरे!
बस अनर्गल संदेह का ही
न अनवरत आलाप कर तू!
हो गए लांछन बहुत अब
सत्य की भी माप कर तू!
विष कलंकों के कलुष पर
थक रहा फिर आज संशय!
है सबल फिर आज निश्चय!॥३॥
आक्रोश की अभिव्यंजना ने
तप्त मन शीतल बनाया।
दीर्घ दग्ध निश्वास देकर
सौम्य चेतन लौट आया।
फिर हुआ मधु-भान यह
कि नियति नहीं इतनी बुरी है,
क्लेश-पीड़ा भर ही नहीं,
मणियों से भी झोली भरी है।
निस्सार जीवन, पंथ दुष्कर,
किसने सोचा यूँ चलूँगा?
प्राण संकट, दुस्सह मौसम,
किसने सोचा यूँ फलूँगा?
हित-सत्य की अनुभूति पर
लुट रहा फिर आज संशय!
है प्रबल फिर आज निश्चय!॥४॥
विश्व से इतना मिला है,
विश्व को मैं भी कुछ दूँ।
नहीं लक्ष्य ही है सभी कुछ,
मार्ग की महिमा भी साधूँ।
देर ही से सही मन को
निष्काम-कर्म का भान आया,
कर्म पर अधिकार केवल,
फल पर करूँ न ध्यान जाया।
पाषाण पथ पर बढ़ रहा हूँ
कर्म-प्रण मन में सजाये,
मैं सतत चलता रहूँगा,
साथ कोई आये - न आये।
चिर ब्रह्म के अनुबोध पर
मिट रहा फिर आज संशय!
है सफल फिर आज निश्चय!॥५॥
४ जनवरी २०१४
बंगलौर