अरुणोदय पर विस्मित शिशु सी उत्सुकता,
मध्याह्न में उद्धत पौरुष सा सूर्य दमकता,
जग ऊर्जित कर, शांत, साँझ में ढ़ल जाता,
अस्ताचल में छिप प्रौढ़ लालिमा लुटाता।
जीवन-तम को मनुज असहाय निरखता है।
देखो! रजनी पर सूरज का बस न चलता है!
स्याह निशा के सन्नाटे से जब सब पीड़ित,
दीपक के कैशौर्य से होता जग आलोकित,
तिमिर से लड़ता, जलता उजले मंतव्यों हित,
धूम भले हो, आस सुबह की रखता जीवित।
भोर भये मनुज भूलता लौ की सार्थकता है!
देखो! बुझने के पहले दीप भभकता है!
तरुणाई का निर्झर उद्गम पर इठलाता,
निर्द्वंद्व शिखर से कूद मृत्यु को आँख दिखाता,
हर रोध-शिला को काट मिटाने में तत्पर,
फिर श्रम से थक, बीते हर मोड़-किनारे पर
जीवन के क्षण मनुज बहु बार और जीता है।
देखो! सिंधु-मिलन पे नद-पाट पसरता है!
कोपल के परिधानों में कलिका संवरती,
इंद्रधनुष के रंग चुराकर नित वो सजती,
शबनम के आभूषण से लद जब है खिलती,
सौरभ की मादकता से प्रकृति महकती।
पतझड़ में टूट मनुज पंखुड़ियाँ गिनता है।
देखो! यत्नों से खिलकर पुष्प बिखरता है!
जीवन का अवसान क्षितिज पर जब हो इंगित,
आसन्न नियति का भान करे मन को धूमित,
यौवन की मरु सिकता जल विहीन हो तपती,
पर इच्छा की कलिका द्रुत आतुर हो उगती!
समय अल्प जान, मनुज लम्बे पग भरता है।
देखो! मृत्यु के सम्मुख भी मनुज निखरता है!
७ मई २०१४
बंगलौर