अधरों पर दृढ़ मौन सजाया,
स्मित की एक धूमिल छाया,
शब्द भले ही झिझक रहे हों, शायद भावों को तोल रही हैं।
नजरें कुछ तो बोल रही हैं!
क्या संचित अभिमान कहीं है?
स्निग्ध नेह का भान नहीं है?
अंतस की अनसुलझी गुत्थी संयत हो कर खोल रही हैं।
नजरें कुछ तो बोल रही हैं!
दायित्व को दान क्यों माना?
उचित है अधिकार का बाना?
शंकित आभारों की गठरी निर्लिप्त हो टटोल रही हैं।
नजरें कुछ तो बोल रही हैं!
खोने-पाने की गणित वृथा है।
आने-जाने की नियत प्रथा है।
अनुरागों के व्यापारों पर वैरागी बन डोल रही हैं।
नजरें कुछ तो बोल रही हैं!
आनंदित जीने की इच्छा।
सुख-दुख समभाव की दीक्षा।
आत्म निहित अंतर्विरोध की मिश्री मन में घोल रही हैं।
नजरें कुछ तो बोल रही हैं!
२७ नवंबर २०१४
बंगलौर