रघुवीर अवध अब लौट चलो

वन आया जब सिमट नगर में,
वनवास वहीं मिल जायेगा।
फिर कष्ट भोगने दूर भला
अब कौन यहाँ तक आयेगा।

सत्य कह रहा, हे प्रभु! अब
नगरी में राक्षस बसते हैं।
पहले रावण के दस सिर थे,
अब दसियों रावण रहते हैं।

लंका भी अब एक नहीं है,
हैं स्वर्ण के अनगिन भंडारे।
सच कुबेर भी राज कर रहे,
गलबहियाँगला+बाँह, गले में बाँह रावण के डाले।

और अगर ये सोच रहे हो,
कि वहाँ सुरक्षित हर सीता है।
तो समाचार पढ़ के जानो,
नारी पर दिन क्या बीता है।

समझोगे कि अरण्यजंगल, वन निरापदबिना आपदा के, सुरक्षित,
जनपदमनुष्यों की बस्ती, जिला अब जंजालझंझट, परेशानी हुए हैं।
वन्य पशु अब लगें अहिंसक,
नगर-जीव विकरालभीषण आकृतिवाला, डरावना हुए हैं।

तो प्रभु नहीं जरूरत वन में,
शरतीर, बाण-चापधनुष उठा के रहने की।
रघुवीर! अवध अब लौट चलो,
वनवास वहीं है निश्चय ही!

३० सितंबर २०१६
बंगलौर
[नवरात्र / दशहरा २०१६ की पूर्व संध्या पर]