[प्रसंग: अज्ञातवास में बृहन्नला के छद्म वेश में कुंठित अर्जुन सोने का प्रयत्न कर रहे हैं]
यामिनीरात मुझको सुला दे!
दिवस के हर प्रहर में,
कष्ट के क्या शूल थे कम?
प्रखर दिनकर ने तपाया,
प्रेरणा में कुछ पगे हम!
स्वेदपसीना का हर बिंदु साक्षी
कर्म में हरदम डटे हम।
फिर व्यथा के अश्रु से क्यों
आँख हो आती सदा नम?
जल रहे हैं नेत्र रंजित,
मलिनमैला, गंदा मुख मेरा धुला दे! ॥१॥
पार्थअर्जुन का एक नाम; पृथा यानी कुंती का पुत्र, विशेषतः अर्जुन के लिए प्रयुक्त हूँ मैं, कर्म मेरा
धनुष से संहार करना।
अब यह देखो रूप मेरा,
नृत्य, सुर, झंकार भरना।
क्लीवनपुंसक का मिथ्याझूठा, बनावटी कलेवरचोला, देह, रूप, पहनावा
बन गया क्या सत्य मेरा?
मृदंग पर बस थाप देना
अब नियतनिश्चित क्या कृत्य मेरा?
ग्लानि का सागर उफनता,
फिर से मुझको न रुला दे! ॥२॥
धर्म के अवलंबआश्रय, सहारा का बल
रंकगरीब, दरिद्र होकर कंकयुधिष्ठिर का अज्ञातवास में नाम जाने?
काठ चूल्हे में जलाकर
बल्लवभीम का अज्ञातवास में नाम भला विजय माने?
ग्रंथिकनकुल का अज्ञातवास में नाम-तंतिपालसहदेव का अज्ञातवास में नाम भी क्या
अश्व-गोधन को रहें नत?
मालिनीद्रौपदी का अज्ञातवास में नाम सैरंध्रीअंत:पुर / रनिवास की दासी बनी
केश के श्रृंगार में रत?
बृहन्नलाअर्जुन का अज्ञातवास में नाम नूपुरघुँघरू पहनकर
गांडीवअर्जुन के धनुष का नाम कैसे भुला दे? ॥३॥
वीर हैं हम सभी दुर्धरप्रचंड, विकट,
व्यूह में अन्याय के पर
शठधोखेबाज-कपट से हारकर है
तेज सारा धूल-धूसर।
शौर्य है किस काम का यदि
धूर्त से वह हार जाये?
काम के किस बाण मेरे
लक्ष्य पर यदि न चलाये?
जिष्णुविजय प्राप्त करनेवाला, अर्जुन का एक नाम हूँ मैं क्या वही जो
नभ, महीपृथ्वी, सागर डुला दे! ॥४॥
रात-दिन मैं जल रहा हूँ
विकटउग्र, तीव्र, भयंकर, भीषण कुंठा के अनलआग में।
द्रोण के इस शिष्य की क्या
कुंडली डूबी गरलजहर, विष में।
धनुर्विद्या का उपासक,
पाये कुछ दिव्यास्त्र भी हैं।
पर शमी वृक्ष में छिपा कर,
तप सभी निष्फल किये हैं।
नैराश्यनिराश होने की अवस्था के संधाननिशाना लगाना को
कोई धनुधनुष मेरा बुला दे! ॥५॥
त्रिगर्त के नरपति सुशर्मा
का कहर यह खूब टूटा,
दुष्ट कीचक के बिन अबल
विराट का गोधन है लूटा।
युद्ध को सज-धज गये सब
भ्रात कृतज्ञ धर्म निभाने।
तजतजना: त्यागना, छोड़ना गये पर यह नपुंसक
कृष्णाद्रौपदी का एक नाम की रक्षा बहाने।
रोकना दुष्करकठिन, मुश्किल मुझे अब
युद्ध का न्योतानिमंत्रण खुला दे! ॥६॥