बेसबब बात बढाने कि जरूरत क्या है?
हम ख़फा कब थे, मनाने की जरूरत क्या है?
नज़रों को पढ़ता हूँ, सुनता हूँ सांसों को,
कुछ कहने को तराने की जरूरत क्या है?
न थी आग तेरे दिल में तो क्यों तपिश मुझको,
और अगर है तो यूं जलने की जरूरत क्या है?
मैं नहीं कहता कि मैं हूँ दीवाना तेरा,
पर सच तो ये है कि कहने की जरूरत क्या है?
आपकी हँसी ने "बेसबब" ही दे दी जन्नत,
अब कुछ और पाने की हमें जरूरत क्या है?
१७ अप्रैल १९९८
Lowell, MA, USA
[शाहिद कबीर की एक ग़ज़ल का अरस मुझ पर कुछ इस कदर हुआ कि मैंने उस ग़ज़ल का मत्ला (पहला शेर) लिया और कुछ शेर अपने जोड़ दिये। नतीजा (मेरी पहली ग़ज़ल) आपके सामने है। "बेसबब" मेरा तख़ल्लुस बन गया।]
शाहिद कबीर की ग़ज़ल:
बेसबब बात बढाने कि जरूरत क्या है?
हम ख़फा कब थे, मनाने की जरूरत क्या है?
आपके दम से दुनिया का भरम है कायम,
आप जब हैं तो ज़माने की जरूरत क्या है?
तेरा कूंचा, तेरा दर, तेरी गली काफी है,
बेठिकानों की ठिकाने की जरूरत क्या है?
दिल से मिलने की तमन्ना नहीं जब दिल में,
हाथ से हाथ मिलाने की जरूरत क्या है?
रंग आँखों के लिये बू है दमगों के लिये,
फूल को हाथ लगाने की जरूरत क्या है?