जीवन पथ पर बढ़ते-बढ़ते
मंदिर द्वार पे आ पहुंचा हूँ।
महादेव को सम्मुख पाकर
दुविधा में फिर से अटका हूँ।
इच्छाओं का कहाँ अंत है,
मानव की तृष्णा अनंत है!
पर दुःख में देव से द्वेष न त्यागा,
दम्भ अड़ा था, कुछ न माँगा।
अब सुख में क्या मांगूँ?
क्या चाहूँ?
ये सोच रहा हूँ।
दुखी हृदय था, पीड़ा से भर
आशा के शत छंद बनाता।
अब सुख की ढेरी पर बैठा,
हर्षित मन में गीत न आता।
जीवन की यह अजब विधा है,
सुख में भी संगी असुविधा है।
दुःख गीतों का अक्षय तूणीर था,
आयुध अमोघ, मैं प्रवीर था।
अब सुख में क्या गाऊँ?
क्या चाहूँ?
ये सोच रहा हूँ।
५ जनवरी २०१५
बंगलौर