विभ्रांति

प्रेरणा के दीप मंदम हो रहे तम में थकित से,
धुंध में है राह खोई, नयन मुंदते हैं व्यथित से,
लालसा में मदमत्त हो दौड़ते थे जो अनवरत,
अब वही पद हैं ठिठकते, क्लांत होकर लघु श्रमित से!

नियति की ग्रीवा पर कभी हाथ थे निर्भय लपकते,
छीन विधि से लेखनी, थे भाग्य का भी भाग्य लिखते,
प्रारब्ध का उपहास यह, समय का क्रूर व्यंग देखो --
अब वही हाथ हैं निज रेखाओं में भविष्य पढ़ते!

देह पर आघात को था वक्र अधरों से चिढ़ाता,
हृदय पर यदि चोट मिलती आँख में न अश्रु आता,
दंभ से झूमता था अदम्य आत्मबल के कवच में,
अब उसी विश्रंभ को एक तुच्छ तृण भी बींध जाता!

क्या हुआ, कैसे सूखी जिजीविषा की भव्य धारा?
क्यों अब बनकर अकिंचन ढूंढता फिरता सहारा?
क्या खो दिया ऐसा, या क्या नहीं अब तक मिला है?
क्यों जगी विभ्रांति दुर्जय? क्यों लगा सर्वस्व हारा?

जब सत्य यह कि जीवनी प्रतिपल सुधा में भींगती,
नेह की अनुरक्त बाँहें व्यग्र आलिंगन बाँधतीं,
कूँजती किलकारियाँ हैं आमोद में आह्लाद की,
फिर क्यों व्यथित हो जीवनी, अनजान कुछ है खोजती?

१८ मार्च २०१५
बंगलौर

[ इसका प्रतिउत्तर प्रांजल में. ]