हाँ! सिर पर भी बाल कभी थे,
यौवन का श्रृंगार कभी थे।
देखो प्रभु की यह चालाकी,
बस ऊसर भू रह गई बाकी!
मूढ़ मति मानव मतवाला,
खो निधि, पाने को उतावला।
अब अतीत की स्मृतियों के,
यौवन की बीती गलियों के,
छाया चित्र निहार रहा है!
जीवन कैसा हार रहा है!
मानव की कुछ प्रकृति है ऐसी,
समय चक्र में पिसता फिर भी,
हार भला वो कैसे माने?
बढ़ता आगे सीना ताने।
यौवन ढलता, ढल जाने दो,
स्मृतियों में बह जाने दो।
अंतस का आधार अभी है,
ऊर्जा का संचार अभी है,
मानव यूँ ललकार रहा है!
जीवन को स्वीकार रहा है!
२९ मई २०१५
बंगलौर
[ प्रेरणा: मित्र निरंजन के केश :-) ]
जरण : aging