शीतसर्दी, जाड़ा की यह रात दुष्करकठिन, दुःसाध्य!
तमअधंकार, अंधेरा घिरा चारो तरफ है,
जो छुओ जैसे बरफ है,
चुभ रही है पवन तीखी
पसलियों के पार होकर।
शुष्क मुख, रूखी त्वचा है,
शक्ति सारी खो चुका है,
देह दुर्बल, भीतजिसे भय हो, डरा हुआ मन है,
काँपता है गातशरीर थर-थर।
कर्म की जलती अनलआग थी,
जीवनी चलती सरल थी।
आग कैसे बुझ गयी है?
तुहिनतुषार, पाला का कटुकडुवा कोपक्रोध, गुस्सा तिस परइतना होने पर, ऐसी अवस्था में भी।
धुंधघना कोहरा, जिसमें प्रायः दिन के समय भी कुछ दूर की चीजें न दिखाई देती हों में ओझल डगरमार्ग, रास्ता है,
असंभव रुकना मगर है,
आज है सर पर उठाया
पौषविक्रमी संवत का पौष महीना, जिसमें आकाश में कोहरा होता है का आकाश दुर्धरजिसे धारण करना कठिन हो, प्रचंड, विकट।
रात क्या यह पार होगी,
शंकशंका, भय का निस्तारउबरना, छुटकारा, निकलना होगी?
विकटकठिन, मुश्किल तम की इस घड़ी में,
प्रातसुबह की है आसआशा दूभरकठिनता से सहा जाने वाला।
शीत की यह रात दुष्कर!
९ जनवरी २०१६
(पौष अमावस्या)
बंगलौर