मेरे मित्र और सहपाठी राकेश मिश्र की बचपन पर एक बहुत ही सुंदर कविता है जो मुझे अतिप्रिय है। उसी शीर्षक और छन्द पर आधारित यह हास्यानुकृति है, अनुरोध है कि पहले वह पढ़ें फिर इसे पढ़ें, तब ज्यादा आनंद मिलेगा।
लड्डू तो कब के खत्म हुए, पर शक्कर से मन छलता हूँ,
कहीं दूर क्षितिज पर यादों की मैं उँगली थामे चलता हूँ।
मेरे फ्रिज में भी थे धरे हुए
काजू कतली, आगरा पेठा,
रसगुल्ले और रबड़ी के संग
माल पुआ, सोहन हलवा।
खा-पी कर सब हजम हुआ, अब रोज वजन मैं तकता हूँ,
कहीं दूर क्षितिज पर यादों की मैं उँगली थामे चलता हूँ।
जब तोंद फूली गुब्बारे सी
कप चाय का उस पे सुस्ताये,
हाय! देख पुरानी पतलूनें
जब शिष्ट कमर है शरमाये,
तब साँस छोड़ गहरी-गहरी, लम्बी आहें मैं भरता हूँ,
कहीं दूर क्षितिज पर यादों की मैं उँगली थामे चलता हूँ।
हो जाता है खाली जब मधु,
मिष्ठी, मलाई का हर प्याला,
रीते डब्बों के संग बुझती
हलवाई की भट्टी की ज्वाला,
तब जिह्वा की करुण पुकारों से मन मार, मूक सिसकता हूँ,
कहीं दूर क्षितिज पर यादों की मैं उँगली थामे चलता हूँ।
५ जून २०१६
बंगलौर