इस कविता का सन्दर्भ और प्रसंग मत पूछियेगा। बस यूँ समझ लीजिये कि सहपाठियों ने एक मस्ती भरी चर्चा में कानपुर का "राष्ट्रगीत" लिखने का दायित्व मेरे ऊपर दे दिया। अब जयशंकर प्रसाद की "हिमाद्रि तुंग श्रृंग से" जैसी ओजभरी कविता किसी "राष्ट्रगीत" की प्रेरणा बने तो इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं। तो मैंने उसी इस्टाइल में कानपुर का "राष्ट्रगीत" लिख दिया। अगर आप कानपुर में कभी नहीं रहे हैं तो शायद ये आपको समझ में नहीं आयेगी, लेकिन उम्मीद है कि कानपुर वाले इसे पढ़कर मुस्कुराये बिना नहीं रह पायेंगे :-)
लाल गुटखा पीक से
रंग दिये हैं भाई जी।
कंटाप जब तुम जड़ो
तो सूज जाए कनपटी॥
बकैत रंगबाज हो, खैनी खा के सोच लो।
भौकाल पुण्य कर्म है, हपक के हौंकते चलो॥
चिकाई हर कहीं करो
लभेड़ चाहे कउनो भी।
काम जब पैंतीस हुआ
निकल लिये पतली गली॥
पल्ले न पड़े मगर औरंगजेब तुम बनो।
कनपुरिया हो जयी बनो, बढ़े चलो बढ़े चलो॥
२५ जून २०१६
सतीश चन्द्र गुप्त कान्हैपुर के हैं :-)