साँझ ढ़ले मधुबन आऊँगा

अभी जगत से जूझ रहा हूँ आशाओं का भार लिये।
साँझ ढ़ले मधुबन आऊँगा सपनों का संसार लिये॥

चाह रहा हूँ, बैठूँ, तुमसे बात कहूँ अपने मन की,
सुनूँ तुम्हारी धड़कन की, उसमें बसती उम्मीदों की।
पर जग के कुछ काम अधूरे पड़े हुए निपटाने को,
अभी मुझे जाना होगा भारी मन में तकरार लिये।
साँझ ढ़ले मधुबन आऊँगा सपनों का संसार लिये॥

प्रिये तुम्हारा हूँ मैं, पर इतना कहने भर से क्या?
पास सदा हम रहते हैं पर साथ मिले न पल भर का।
मुखर नहीं है वाणी पर सब मौन तुम्हारा कहता है,
अधरों पर आधी स्मित का अभिमानी अधिकार लिये।
साँझ ढ़ले मधुबन आऊँगा सपनों का संसार लिये॥

सखी कहीं है खोया मैंने जीवन का वह ध्रुव-तारा,
जो दूर गगन से करता था चिह्नित मेरा पथ सारा।
समय चुरा कर, उलट-पलट कर खोजूँ अपने अंतस में,
पाकर उसे मनाकर लाऊँ भटके मन की मनुहार लिये।
साँझ ढ़ले मधुबन आऊँगा सपनों का संसार लिये॥

विदा करो तुम मुदित वदन अब, वापस जब मैं आऊँगा,
उपहार हैं सोचे मन में कुछ, ढूँढ कहीं से लाऊँगा।
महक भरी स्मृतियों के कुछ पुष्प तुम्हारी वेणी को,
अस्ताचल के आसमान से कुंकुम का श्रृंगार लिये,
साँझ ढ़ले मधुबन आऊँगा सपनों का संसार लिये॥

१७ नवम्बर २०१६
बंगलौर