सब प्रिय जन गंतव्य गए,
मैं एक अकेला अरिवनरस्सी का वह फँदा जिसमें घड़ा आदि फँसाया जाता है में,
रोगी काया क्लांत हृदय से
झाँक रही है जीवन में।
ढूढ़ रही है मन के अंदर
इच्छाओं के झुरमुट को,
अभिलाषाओं से ही जैसे
कहीं जिजीविषा प्रस्फुट हो।
उथल-पुथल कर हार गया पर
इच्छा का कोई चिह्न नहीं।
क्या मैं बन गया हूँ योगी,
या मन मरघट से भिन्न नहीं?
मन के कुछ कोने रीते हैं,
कुछ में रिसता दलदल है,
एक भाग तो जमा शिला सा
नहीं कहीं कोई हलचल है।
सोच रहा हूँ कारण क्या हैं
पहुँचा कैसे इस स्थिति पर।
शायद अब मैं समझ रहा हूँ,
क्यों छाया सम्मोहन मति पर।
दुःख से बचने को निष्ठुर
विराग से था मन भर डाला।
दुःख हीन हुआ, पर हर्ष हीन भी,
रस-विहीन जीवन प्याला।
प्रज्ञा का आधिपत्य हुआ,
और कुंद हो गया संवेदन,
हृदय कुपोषित सूख गया
और मंद हुआ है स्पंदन।
भाव बिना मति दिशाहीन है
किंचित् यही रोग का मूल।
सामंजस्य संतुलन उनमें,
अति एक की निश्चित भूल।
१३ दिसंबर २०१६
बंगलौर