डॉ. रामकुमार वर्मा जी की यह कविता मैंने कक्षा १० में हिंदी पाठ्य-पुस्तक में पढ़ी थी, और पढ़ते ही जबान पर चढ़ गयी थी। आज २८ साल बाद भी मुझे यह कविता उतनी ही प्रिय है। सरल और गहरी ...
प्रिय तुम भूले मैं क्या गाऊँ?
जिस ध्वनि में तुम बसे उसे
जग के कण कण में क्या बिखराऊँ?
शब्दों के अधखुले द्वार से
अभिलाषाएँ निकल न पातीं।
उच्छ्वासों के लघु लघु पथ पर
इच्छाएँ चलकर थक जातीं।
हाय! स्वप्न संकेतों से
मैं कैसे तुमको पास बुलाऊँ!
प्रिय तुम भूले मैं क्या गाऊँ?
जुही सुरभि की एक लहर में
निशा बह गयी डूबे तारे।
अश्रु बिंदु में डूब डूब कर
यह दृग तारे कभी न हारे।
दुःख की इस जागृति में कैसे
तुम्हें जगा कर मैं सुख पाऊँ!
प्रिय तुम भूले मैं क्या गाऊँ?
-- डॉ. रामकुमार वर्मा