वसंत का आना मतलब शीत के चरम, यानि शिशिर ऋतु (जिसे पतझड़ भी कहते हैं क्योंकि इसमें पेड़ों के पत्ते झड़ जाते हैं) का समापन। सूर्य का पृथ्वी के उत्तरी गोलार्द्ध को अपनी कृपा-दृष्टि से देखना उसे किसलय-कलियों से भर देता है। निराला जी के शब्दों में कहें तो "रूप-राशि जागी जगती-तन"। ऋतुराज वसंत के दूतों के आने पर निराला जी कविता संग्रह परिमल में लिखते हैं:
दूत, अलि, ऋतुपति के आये।
फूट हरित पत्रों के उर से
स्वर-सप्तक छाये।
दूत, अलि, ऋतुपति के आये।
काँप उठी विटपी, यौवन के
प्रथम कंप मिस, मंद पवन से,
सहसा निकल लाज-चितवन के
भाव-सुमन छाये।
बही हृदय हर प्रणय-समीरण,
छोड़ छोर नभ-ओर उड़ा मन,
रूप-राशि जागी जगती-तन,
खुले नयन, भाये।
देख लोल लहरों की छल-छल,
सखियाँ मिल कहतीं कुछ कल-कल,
बही साँस में परिमल शीतल
तन-मन लहराये --
दूत, अलि, ऋतुपति के आये।