मणिकर्णिका, मनु, छबीली... झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई... शरीर में सिहरन दौड़ जाती है जब भी यह नाम मन में गूंजता है। कानपुर के पास बिठूर में पेशवा के घर में नाना राव और तात्या टोपे के साथ पली-बढ़ी। उसके गुड्डा-गुड़िया नहीं, बल्कि घुड़सवारी, तलवारबाजी, निशानेबाजी और मलखंभ पसंदीदा खेल थे। रानी को झाँसी में अपने महल से मंदिर जाने के लिए पालकी नहीं घोड़ा ज्यादा सुविधाजनक लगता था। और घोड़ों के नाम भी कैसे :- सारंगी, पवन, बादल!
कल्पना कीजिए एक २९ साल की युवती -- विधवा, माँ, रानी -- जनरल ह्यूज रोज की अंग्रेज सेना के झाँसी के घेराबंदी करने पर हुँकारती है, "मैं अपनी झाँसी नहीं दूँगी"। बुंदेलों ने ऐसा युद्ध किया कि जब शहर की दीवारें टूटी और अंग्रेज सेना शहर में घुसी तो गली-गली में लड़ाई हुई, महल के कमरे-कमरे में खून बहा। अंग्रेज इतने क्रुद्ध हुए कि कत्लेआम में महिलाओं और बच्चों को भी न बख्सने का फरमान दिया। झाँसी से रानी खुदाबख्श, तोपची गौस खाँ जैसे बहादुरों के साथ बाहर निकली, तो पहले कालपी, फिर ग्वालियर, और वहाँ हुई लड़ाई में आज के दिन (१८ जून १८५८) शहीद हो गईं। रोमांच से शरीर झनझना जाता है! अकारण नहीं है कि छबीली की मूर्ति हमेशा घोड़े पर सवार, तनी हुई तलवार के साथ होती है।
दसवें की बोर्ड परीक्षा के बाद मुझे पुरस्कार में उनके जीवन पर आधारित ढाई सौ पेज का उपन्यास मिला, जो आज भी मेरे पास है। दो दिन में पढ़ डाला था, और फिर न जाने कितनी रात सपनों में गौस खाँ बना झाँसी की कल्पित दीवारों पर तोपों में गोले भर-भरकर निशाना लगाता रहा। बारूद से सने हाथ, गले में लटकी दूरबीन; अपने उस सपने में अपना हुलिया अभी तक याद है। अब सोचता हूँ तो लगता है कि कलुषित हो गया हूँ; स्वार्थी, बस अपने में सिमटा-सिकुड़ा। क्या साहस है मुझमें कि कहूँ कि मैं अपना भारत नहीं दूँगा, और फिर पिल पडूँ इसे नोचने-लूटने वाले हर हाथ पर?