बच्चों की (बैंगलोर में) गर्मियों की छुट्टियाँ ख़त्म होने को हैं। इसके साथ ही दो मास की बच्चों के संग मस्ती के साथ-साथ ही अन्य गतिविधयों में जो शीतनिद्रा सी बन गई थी, उसकी भी समाप्ति हो रही है। तो मन में आया कि एक बार फिर से कामायनी पढ़ने-समझने का प्रयास किया जाय। पहले के प्रयासों में पढ़ा भले हो, पर मेरी जड़-बुद्धि को समझ में थोड़ा ही आया है।
जल-प्लावन देवों की उच्छृंखल भोग-वृत्ति और निर्बाध आत्मतुष्टि का प्रकृति के द्वारा प्रतिकार था। और विध्वंस के उपरांत, मनु मानव-संस्कृति की स्थापना करने वाले आदि पुरुष कहे जाते हैं। इस जल-प्लावन से आरम्भ होने वाली मनु, श्रद्धा और इड़ा की कथा के अंशों का विभिन्न पौराणिक ग्रंथों में उल्लेख है। और इसी जल-प्लावन पर प्रसिद्द पंक्तियों से कामायनी शुरू होती है:
हिमगिरि के उत्तुंग शिखर पर
बैठ शिला की शीतल छाँह,
एक पुरुष भीगे नयनों से
देख रहा था प्रलय प्रवाह।
नीचे जल था ऊपर हिम था
एक तरल था एक सघन,
एक तत्त्व की ही प्रधानता --
कहो उसे जड़ या चेतन।
यह तो सभी को पता है कि कामायनी केवल मनु-श्रद्धा-इड़ा आदि का इतिवृत्तांत भर नहीं है, सर्गों के नामों से ही संकेत मिल जाता है कि यह मानव के अंतस की यात्रा है। प्रसाद कामायनी के आमुख में लिखते भी हैं कि इस कथा में मनु-श्रद्धा-इड़ा "अपना ऐतिहासिक अस्तित्व रखते हुए भी, सांकेतिक अर्थ की भी अभिव्यक्ति" करते हैं। मनु मन के रूपक हैं, और उसके दो पक्ष है :- श्रद्धा हृदय या भाव पक्ष की प्रतीक हैं, और इड़ा मस्तिष्क या बुद्धि पक्ष की। कामायनी मनु(ष्य) की मन के इन दोनों पक्षों के मनन से मानवता की विकास-यात्रा है। तो इतना तो लगता है कि कामायनी को समझने से जीवन की समझ बढ़ेगी। परन्तु कामायनी बड़ी सघन है। अगर पढ़ते-पढ़ते कहीं दुरूह और सूक्ष्म पर अटक जाता हूँ तो सांसारिक कर्मों में फँसकर भटकने का बहाना मिल जाता है।
सबसे प्रथम सर्ग है चिंता। हम आयु वृद्धि के साथ और कुछ सीखें या न सीखें, बिना किसी प्रयास के ही सहज चिंता करना जरूर सीख जाते हैं। मनुष्य और चिंता जैसे पर्याय हों। ज़रा सोचिए आज आपने क्या किया? भले ही कुछ और न किया हो लेकिन किसी न किसी बात की चिंता जरूर की होगी। कभी अतीत की चिंता, कभी भविष्य की चिंता; वर्तमान तो मतलब घर की मुर्गी दाल बराबर, जब जी चाहे काटो, पकाओ और खाओ। तो मनु की यात्रा भी चिंता से ही आरम्भ होगी, प्रसाद कहते हैं:
चिंता करता हूँ मैं जितनी
उस अतीत की, उस सुख की,
उतनी ही अनंत में बनती
जातीं रेखाएँ दुख की।
और आगे कहते हैं:
मणि-दीपों के अंधकारमय
अरे निराशापूर्ण भविष्य!
देव-दम्भ के महामेघ में
सब कुछ ही बन गया हविष्य।
(हविष्य: हवन सामग्री)
ये चिंता भी ईश्वर से कम नहीं है, इसके अनेक रूप हैं :- अतीत में जो बुरा था वह क्यों था, उसकी चिंता; अतीत में जो अच्छा था वह अब क्यों नहीं है, उसकी चिंता; अतीत में जो अच्छा नहीं हुआ वह क्यों नहीं हुआ, उसकी चिंता; अभी अगर दुःख है तो कब तक रहेगा, उसकी चिंता; और अगर सुख है तो कहीं चला न जाए उसकी चिंता। ऐसे ही चिंता के कितने ही रूप हैं, और अपनी ही नहीं दूसरों से तुलना की न जाने कितनी ही चिंताएँ। जैसे गणपति, राम, कृष्ण, शिव से लेकर दुर्गा और काली तक ईश्वर-रूप के सहस्त्रों विकल्प हैं, जो मन को भाए उसे पूजो; वैसे ही चिंता के सहस्त्रों रूप हैं, आपको जो भाए उसे पकड़ के बैठ जाओ।
चिंता होगी, तो दुःख छाया की तरह साथ होगा ही। पर मानव को दुःख तनिक भी प्रिय नहीं हैं, और वह अंततोगत्वा इसका निदान आशा से करता है, चिंता सर्ग की अंतिम पंक्ति में भी सुबह की झलक दिखती है:
वाष्प बना उड़ता जाता था,
या वह भीषण जल-संघात।
सौरचक्र में आवर्तन था,
प्रलय निशा का होता प्रात।