आप सब ने धर्मवीर भारती जी की गांधारी के शाप पर कविता पढ़ी होगी। ऐसे किसी धुरंधर की प्रसिद्द कविता होने के बाद कुछ लिखना न केवल मुश्किल अपितु जोखिमभरा होता है। किन्तु मैं मूर्ख हूँ :-D
[अश्वत्थामा की मणि-हरण के साथ ही महाभारत युद्ध समाप्त हो गया। अब पांडवों को अपने कुटुम्बियों, मित्रों और बचे सेनानियों के साथ हस्तिनापुर जाना है। तभी युधिष्ठिर को सूचना मिलती है कि धृतराष्ट्र अपने पुत्र-पौत्रों की अन्त्येष्टि करने गांधारी, कुंती आदि कुल-स्त्रियों के साथ कुरुक्षेत्र आये हैं।]
ध्वंस महाभारत का पूरा,
कठिन कार्य पर बाकी,
विजय बोझ को ले जाना है
राह हस्तिनापुर की।
जब अपनों के लहू से लगता
राजतिलक का टीका,
तब विषाद से हो जाता है
स्वर्ग-विभव भी फीका।
और वहाँ तो राह देखते
हैं दो बूढ़े परिजन,
कुल-हन्ताओं का बेबस हो
करने को अभिवादन।
शीश नवा उनके सम्मुख जब
पांडव चरण छुएँगे,
पुत्र-शोक में डूबे मन क्या
आयुष्मान कहेंगे?
तभी सुना धृतराष्ट्र हैं आये
दाह कर्म करने को,
कुरुक्षेत्र में वधुएँ आयीं
नेह विदा करने को।
पांडव चले भेंट को उनसे,
धर्मराज व्याकुल थे,
भीम अनमने, गुमसुम अर्जुन,
चुप सहदेव-नकुल थे।
साथ कृष्ण भी थे लेकिन वे
किसी सोच में खोये,
संभावी अनिष्ट का जैसे
अजगर कसता होए।
चाह रहे थे विदुर-दूत अब
जल्दी से आ जाए,
धृतराष्ट्र की मनोदशा का
समाचार बतलाए।
राजशिविर से सेवक ने आ
कहा कृष्ण से कुछ तो,
सुन चिंता की रेखाओं ने
ग्रास बनाया मुख को।
कृष्ण सोचते राजन ने सब
खोकर बैर न त्यागा,
बचा-खुचा आदर खोने को
आकुल हुआ अभागा।
क्या बैर का रंग ऐसा है,
चढ़ कर कभी न जाता?
हानि बढ़े जो, हार बढ़े जो,
क्रोध और बढ़ जाता?
हानि-हार के दर्पण में क्यों
मनुज स्वयं ना देखे,
परछाई बनने-मिटने पर
क्यों कुछ भी ना सीखे?
अभी नहीं अनुकूल घड़ी है
गुत्थी सुलझाने की,
कभी और वेला आयेगी
तत्वज्ञान पाने की।
धृतराष्ट्र के मन का विषधर
निश्चित फुफकारेगा,
किसी बहाने से वह बढ़कर
भीम को डस मारेगा।
[आगे पढ़िए अगली कड़ी में :-) ]