सड़कों को बहते देखा है

बाबा नागार्जुन की एक प्रसिद्द कविता है: बादल को घिरते देखा है। उससे प्रेरित हो बंगलौर का पिछले दिनों बरसात में बेहाल देख कर यह मन में आया:

सड़कों को बहते देखा है।
उमड़-घुमड़ कर, घुमड़-उमड़ कर,
उन पर निकली प्रलय नदी से
अचंभित स्तब्ध शहर को
डरा-डरा रहते देखा है।

हरे-भरे उपवन के जैसी
अभिरामी, व्यापी सुषमा को,
विस्तृत नीले सुखद सरोवर
मदन रिझाती मनोरमा को,
गगन चूमती लोलुपता के
स्मारक भवनों से घिरकर,
भद्दे, तपते, कंकरीट के
प्राणहीन बीहड़ में दबकर,
अंतहीन उत्पीड़न सारे
सिसक-सिसक सहते देखा है।

नहीं सुनी बधिरों ने सिसकी,
पड़ा सभी की अक्ल पे ताला।
मानव ने पापों से घट क्या
झीलों को पट कर भर डाला।
पर मेघों ने समझा दुःख को,
पिघले, उनके आँसू बरसे।
मची तबाही, भुगतो, पानी
अब गुजरा सर के ऊपर से।
मानव के दृढ़ अहंकार को
भंगुर हो ढहते देखा है।

१६ अक्टूबर २०१७
बंगलौर