हमें भी ग़ज़ल आ जाए

शायद कभी ख़ुदा का फ़ज़ल आ जाए
क्या पता तब हमें भी ग़ज़ल आ जाए

क़ाफ़िया समझे और रदीफ़ भी समझे
देखिये बहर की भी अकल आ जाए

नाज़ुक फ़साने दिल में कब तक दबायें
शायरी पे हमें भी दखल आ जाए

थक गया हूँ जमाने की शग़ल सुन के
नकल कर ली बहुत अब असल आ जाए

मजलिसी सूरत, नुमाइश हर तरफ है
की दुआ कि दिल में भी चहल आ जाए

खुशनुमा जिंदगी में सुखन न बचा है
ख़लिश चुभती रहे, कुछ ख़लल आ जाए

चाहता है ग़ज़ल तो बस ग़ज़ल कह ले
क्यों तिरे झोपड़े पे महल आ जाए

कर रहा "बेसबब" गुस्ताख़ लफ्फ़ाज़ी
चुहल थोड़े कि यूँ ही ग़ज़ल आ जाए

८ जुलाई २०१६
बंगलौर

PS:
क़ाफ़िया: "..अल"
रदीफ़: "आ जाए"
बहर: मुशाकिल (२१२२ १२२२ १२२२, फ़ाइलातुन मुफ़ाइलुन मुफ़ाइलुन)