भारतवर्ष में आदि काल से अध्यात्म की अनगिन धाराएँ बहती रही हैं। धर्म के सनातन हेमश्रृंगों से निकलीं, आपस में मिलीं-घुलीं, और मानवता को सिंचित करते हुए हिन्द समाज के महासागर में समा गयीं। यह क्रम अनवरत चलता रहा है, और आगे भी चलता रहेगा। साहित्य भी इससे अछूता नहीं रहा। अध्यात्म के सार-सत्व की कभी कबीर के दोहों, तो कभी नानक की साखी, और कभी मीरा के भजन के रूप में मानवता पर अमृत वर्षा होती रही।
आज जीवन की आपाधापी में हमारे पास यह याद रखने के लिए समय भले ही न हो, लेकिन वह ज्ञान शाश्वत है, अभी भी प्रासंगिक है। इसलिए संत-सरिता नामक यह लेख-स्तम्भ उस धारा के कुछ छीटें बिखेरने का प्रयास है। अगर आपको पसंद आए तो इसे प्रसारित करें, शेयर करें।
आज नव विक्रम संवत् (२०७४) के अवसर पर, आरम्भ बाबा कबीर के इस दोहे से करते हैं, जिसे उन्होंने जीवन की आपाधापी पर लिखा था:
चलती चक्की देख के, दिया कबीरा रोय।
दो पाटन के बीच में, साबुत बचा न कोय॥
इसका अर्थ सीधा-सरल है: संसार की चक्की के दो पत्थर-पाटों के बीच हम सब अनाज के दानों की तरह पिस रहें है, और अंत में कोई भी साबुत बचने वाला नहीं है, आटे की तरह महीन बुरादा होना ही तय है। है न आज भी यह सच्ची बात? आज मंगलवार हो गया, आप शुक्रवार की प्रतीक्षा कर रहे हैं या नहीं?
एक तरफ तो बुरा लगता है कि चक्की में पिस रहे हैं, लेकिन ज़रा सोचिए कि इस पिसाई से हमारा महीन या सूक्ष्म बनना कोई बुरी बात है क्या? जीवन हमें रगड़ता है, सिखाता है, तो उद्देश्य होता है कि हम उपयोगी बनें। इसलिए आप अपने लिए जो भी पिसाई चुनें, यह अवश्य सोचें कि आप गेहूँ की तरह अपनी सार्थकता बढ़ा रहे हैं, या घुन की तरह जीवन का अंत कर रहे हैं। चलिए बहुत फेसबुक हो गया, अब पिसने में लग जाइए, अभी लगभग पूरा हफ्ता बाकी है।
ऐसी जनश्रुति है कि यह दोहा सुनने पर कबीर के पुत्र कमाल ने जवाब दिया:
चलती चक्की देख के, हँसा कमाल ठठाय।
कीले से जो लग रहा, ताहि काल न खाय॥
जिस तरह अनाज के जो दाने चक्की की कील के पास होते हैं वे साबुत बच जाते हैं, उसी तरह जो अपना मन ईश्वर से लगा कर रखता है वह सुख-दुःख, राग-विराग, प्रेम-घृणा, जीवन-मरण आदि के विपरीत चलते चक्की के पाटों के बीच पिसने से बच जाता है।