अंग्रेजी में एक कहावत है: ‘एक तस्वीर एक हजार शब्दों के बराबर होती है।’ मेरे अनुसार वैसे ही एक कहावत कम से कम दर्जन भर शब्दों के बराबर तो होती ही है। हिंदी में कहावतों और मुहावरों की बड़ी समृद्ध परंपरा है। संस्कृत और हिंदी साहित्य के आदिकाल में केवल पद्य ही था। गद्य का विकास बहुत नवीन, हज़ारों वर्षों के साहित्य इतिहास में कह सकते हैं कि समकालीन है। कई संस्कृत श्लोकों और हिंदी दोहों, चौपाईयों आदि की पंक्तियाँ भी कहावतों के रूप में प्रचलित हैं। यह लेख-स्तंभ में इसी चर्चा के लिए है।
कहावत (यानि लोकोक्ति) और मुहावरे (वाग्बन्ध) में यह अंतर है कि कहावत सम्पूर्ण वाक्य होती है, और मुहावरा मात्र वाक्यांश। मतलब मुहावरे का प्रयोग किसी वाक्य का केवल एक हिस्सा भर होगा, पूरा वाक्य नहीं। जैसे कि ‘तख़्ता उलटना’। आप इससे वाक्य बना सकते हैं: जयप्रकाश आंदोलन ने इंदिरा गाँधी सरकार का तख्ता पलट दिया।
पिछले ब्लॉग पोस्ट में संसार की चक्की में जीवन के पिसने पर कबीर के लिखे एक दोहे चर्चा की थी। इसी चक्की में पिसने पर एक कहावत है: ‘गेहूँ के साथ घुन भी पिसता है’। मतलब कि गुनाहगार के साथ रहने वाला निर्दोष भी कष्ट पाता है। वैसे यह बात और है कि हमारे खाने में गेहूँ निर्दोष है और घुन दोषी, क्योंकि हम गेहूँ का आटा खाना चाहते हैं, घुन नहीं। लेकिन यहाँ इसको दरकिनार कर दें। घुन है जो गेहूँ की संगति में रहता है, वह बिना गेहूँ के नहीं होता। इसलिए जब गेहूँ पिसता है, तो साथ में घुन भी। संगति का गुण-दोष भुगतना ही पड़ता है, और बुरी संगति में अच्छे व्यक्ति की भी हानि होती है।
इससे फर्क नहीं पड़ता कि संगति स्वेच्छा से है या मजबूरन। अब नोट-बंदी को ले लीजिए। चूँकि धन हर कोई रखता है, तो चाहे-अनचाहे हम सब काला-धन रखने वालों की संगति में हैं। मजे की बात यह है गेहूँ (यानि नोट-बंदी का निशाना, काला-धन वाले जिन्हें सरकार पीसना चाहती थी) कम हैं, और घुन (सच्चे व्यक्ति) ज्यादा। लेकिन नोट-बंदी में सभी पिसे। कुछ लोग कहते हैं कि ज्यादातर गेहूँ तो बच गए, केवल घुन ही पिसे!
इसी से मिलती-जुलती एक और कहावत है: संगति ही गुण आत हैं, संगति ही गुण जात। यानि संगति से व्यक्ति में गुण-अवगुण आते-जाते है। ऐसी ही बात अंग्रेजी की इस कहावत में भी है: ‘show me who your friends are and I will tell you who you are’। यानी दोस्तों या संगति का चयन बहुत सोच-विचारकर करना चाहिए।