मन - प्राण
"मन - प्राण" मेरी कविताओं का संकलन है. मुझको हिंदी कविता पढ़ने में हमेशा अभिरुचि थी, लेकिन लिखने में मैं कभी गंभीर नहीं रहा. यदा - कदा मनोदशा अगर बाध्य कर देती थी, तो कविता स्वयं ही आ जाती थी, और मेरा योगदान उसे लेखनी से पन्ने पे लिख देने भर का ही होता था. मैंने "मन - प्राण" के "आत्मालोचन" में भी ये कहा है कि "लिखना मेरा कर्म नहीं है, औषधि है."
गंभीर न होने के कारण मैं कविताओं को सहेज कर रखने में सुव्यवस्थित भी नहीं रहा. जो कागज हाथ में होता था, उसमे जल्दी से लिख देता था; ये भय होता था कि कविता कहीं चली न जाय! और जो किताब पढ़ रहा होता था, उसके बीच में वो कागज दबा देता था. अगर कभी मन हुआ और समय मिला तो उसको आपनी डायरी में अनुकृत कर देता था. भगवानम् यत करोति शोभनं एव करोति. सुव्यवस्थित न होने का भी मुझे लाभ ही हुआ. एक बार क्षुब्द होकर प्रमाद में मैंने अपनी सारी डायरियां जला डालीं -- कई कवितायें तो जल गयीं, लेकिन कई विभिन्न किताबों में दबे हुए पन्नों के रूप में बच भी गयीं. जब मेरा विवाह होने वाला था, तो मैंने सारी किताबें खंगाल डालीं और जितने भी पन्ने मिले उनको समयावार संजोकर एक पुस्तिका के रूप में टाइप और प्रिंट किया - बाकायदा आवरण-पृष्ठ के साथ. यही मेरा मेरी पत्नी के लिए उपहार था.
कुछ शब्द इस कृति के नामकरण पर भी. मैं पण्डित दीनदयाल उपाध्याय सनातम धर्म विद्यालय में पढ़ता था. वहां सुबह प्रार्थना के बाद सदाचार-वेला होती थी, और उसके बाद विभिन्न विषयों की वेलायें होती थीं. उस सदाचार-वेला में बहुत ज्ञान बांटा जाता था :-) उस भारी-भरकम ज्ञान में अगर मुझे कुछ थोडा-बहुत समझ में आ जाता था, भा जाता था, तो मैं उसे अपनी डायरी के एक हिस्से में लिख लेता था. उसी डायरी में पीछे कुछ पन्ने मैंने अपने लिए छोड़ रखे थे, जिसमे मैं अपने भाव और ज्ञान अंकित करता रहता था. डायरी के उस हिस्से का शीर्षक था मन-प्राण (Heart & Soul). इस कविता संकलन के लिए मुझे यही नाम उपयुक्त लगा. यह एक संयोंग मात्र ही है कि इस संकलन की एक कविता में मैंने इन्ही शब्दों का प्रयोग भी किया है.
यह पुस्तक मैंने २००२ में उपलब्ध एक देवनागरी font में टाइप की थी. अब देवनागरी के लिए Unicode भी आ गया है. इसलिए मैं कविताओं को unicode में रूपांतरित करके यहाँ प्रकाशित कर रहा हूँ.
अंत में "मन - प्राण" के "आत्मालोचन" से ही: "अन्ततोगत्वा, मैं जो कुछ भी लिखता हूँ वह स्वांतसुखाय है, अगर किसी और को भी इसमें आनन्दानुभूति होती है तो मेरे लिये यह प्रभु का प्रसाद है."
सतीश चन्द्र गुप्त
८ फरवरी २०११