मध्याह्न
जीवन दिवस के सदृश्य है। जिस तरह दिन की असूक्ष्मतया तीन अवस्थायें हैं: प्रभात, मध्याह्न और संध्या; उसी तरह जीवन की भी तीन अवस्थायें हैं: बाल, युवा, और वृद्ध। बाल्यकाल मनुष्य को जन्म से लेकर शिशु, किशोर और तरुण बनने तक ले जाता है; युवाकाल में मनुष्य युवक और प्रौढ़ बनता है; और फिर वृद्ध-काल उसकी देहावसान तक की यात्रा है। भाग्यशाली बाल्यावस्था कौतूहलपूर्ण अन्वेषण, शिक्षण और अबाध आनंद से भरी होती है। सार्थक युवावस्था में नियति और परिस्थितियों के द्वारा मनुष्य के व्यक्तित्व और कर्मठता की अनगिन परीक्षायें होती हैं। वृद्धावस्था क्या है, ये मुझे अभी पता नहीं है।
मेरी कविता मेरे जीवन की कहानी मात्र है: "मन-प्राण" बाल्यकाल था, "मध्याह्न" युवाकाल है। यदि "मन-प्राण" मेरे जीवन की प्रभात वेला का प्रतिबिंब था, तो "मध्याह्न" भरी दोपहरी में तपती मेरी परछाई है। यदि "मन-प्राण" उत्सुक जिज्ञासा थी तो "मध्याह्न" विकट तृष्णा है। यदि "मन-प्राण" प्रभा में आशा की ओस की शुचिता थी, तो "मध्याह्न" दोपहर में उद्यम की स्वेद-बूँदों का खारापन है। यदि "मन-प्राण" ऊषा के आकाश की अरुणिमा थी, तो "मध्याह्न" सिर पर चढ़े सूरज की उमस में मेरे उद्विग्न ललाट की लालिमा है। यदि "मन-प्राण" भोर का आशान्वित आह्लाद गान था, तो "मध्याह्न" दोपहर का सतत कर्मरत व्यग्र विकल उद्घोष है।
बाल्यावस्था में मन-मस्तिष्क, भावना-विचार विकसित होतें हैं, सपनों का ताना-बाना बनता है, और व्यक्ति आगे भविष्य की ओर आशापूर्ण दृष्टि से देखता है। युवावस्था उन सपनों को साकार करने में प्रयासरत रहती है; व्यक्ति कभी पीछे देखते हुए बचपन की यादों में खो जाता है तो कभी आगे देखते हुये नये सपनों की रूपरेखायें बनता है। अधिकृत रूप से तो नहीं कह सकता, लेकिन शायद वृद्धावस्था जीवन-कर्म की विवेचना से उत्पन्न रुष्टि और संतुष्टि के बीच संधि-संतुलन करते हुए स्वयं को और अंत के आनंद को अपनाने की तपस्या है; और इसमें शायद मनुष्य केवल पीछे मुड़-मुड़ कर ही देखता है क्योंकि आगे मृत्यु के उस पार के अँधेरे को देखना जीवन की शैली नहीं है, और कदाचित संभव भी नहीं है।
युवावस्था के अनुरूप ही, "मध्याह्न" में मैं कभी-कभी पीछे मुड़ कर अब तक तय किये रास्ते को देखता हूँ और सोचता हूँ कि कितनी दूर चल आया हूँ। कई पड़ावों की याद आती है जहाँ से अनजाना भविष्य बहुत ही दुर्गम दिखता था। कभी अतीत से इतनी दूर तक पहुँच पाने पे अचरज होता है, तो कभी अतीत से इतना दूर आ जाने की टीस भी उठती है। कभी अतीत के भूले घाव हरे हो जाते हैं, तो कभी अतीत में छूटे भाव। जहाँ अतीत की यादों का मोह है, वहीं भविष्य की ओर बढ़ने की ललक भी है। यदि बीत गयी प्रभात वेला के कलरव याद पड़ते हैं, तो आने वाली दूर दिखती गोधूलि वेला के श्रांत मंद्ररव भी सूझते हैं। बड़ी कश्मकश है। लेकिन ये कश्मकश कभी-कभी ही है क्योंकि ज्यादातर उर्जा तो वर्तमान के संघर्ष पर ही केन्द्रित है, मन-प्राण के मंथन और उत्कर्ष पर ही केन्द्रित है।
नियति से विवाद अभी थमा नहीं है, उससे वैर-भाव खत्म नहीं हुआ है। अभी भी कभी-कभार ऐसे क्षण होते है कि यदि उन क्षणों में आराध्य-देव मिल जायें तो पहले उनके पेट में एक मुक्का जडूँगा, फिर पूछूँगा कि देव! कहो हाल कैसे हैं? लेकिन, हाँ, कटुता जरूर कुछ कम हुई है। इतनी दूर तक चल कर आने पर लगता है कि यदि नियति केवल शत्रु ही होती तो ये कथा कब की समाप्त हो गयी होती; और कम ही सही इस कथा में जो भी थोड़े मधुर अंश हैं वो न होते। जीवन की कठिनाइयों, निराशा और उपेक्षा से उबरने पर समझ का परिपक्व होना स्वाभाविक है, जैसा कि हरिवंशराय बच्चन जी ने लिखा है:
तू तिमिर में धँस चुका है,
तू तिमिर में बस चुका है,
इसलिए तेरे नयन को
ज्योति का जादू समझने
का मिला अधिकार।
तू उपेक्षा सह चुका है,
तू घृणा में दह चुका है,
इसलिए तेरा हृदय ही
जान सकता है कभी
वरदान क्या है प्यार!
इस ऋतु-परिवर्तन में मेरी पत्नी, पुत्री, और कुछ अतिनिकट मित्रों का अमूल्य अनुदान है। पत्नी ने अवलंबन बन कर मन की पीड़ा को समझा-बाँटा, पर पुत्री की नन्ही उँगलियों के स्पर्श ने पीड़ा को काफी हद तक भुला ही दिया। जैसे जैसे पुत्री बड़ी हो रही है, दादी-अम्मा की तरह मेरी कमियों और गलतियों पर बड़े अधिकार से डाँटती है और बड़े ही दुलार से समझाती भी है। माँ की लम्बे समय से जो कमी थी, अब वो पूरी सी होने लगी है। उसको देख कर भाग्य पर फिर से भरोसा होने लगा है। कभी कभी लगता है कि शायद दोषी मैं ही था -- ये मेरी ही प्रकृति है कि नियति से लड़ बैठने का कोई न कोई बहाना खोज ही लेता हूँ। अब डर भी लगता है कि अपनी प्रकृति-दोषों के चलते कहीं ये अवलंबन खो न बैठूँ। जहाँ पहले जीवन के प्रति निर्मोही था, अब मोह आने लगा है। तनया के आने से इस मोह का सकारात्मक प्रभाव है कि तात्-दायित्व का निर्वाह सर्वोपरि हो गया है। नियति अब उतनी बुरी नहीं लगती।
फ़िल्मी भाषा में कहूँ तो: पिक्चर अभी बाकी है :-)
जीवन अनुभव के कथन मुझे कविता में कहने ही उपयुक्त लगते है क्योंकि कविता में कवि कह भी देता है, और छिपा भी लेता है। कविता निराकार रुपरेखा ही देती है जिसमे पाठक अपने अनुभव और कल्पना के रंग भरता है। कविता ऐसी विधा है जो पाठक को निष्क्रिय नहीं रहने देती बल्कि उसे कविता के अर्थ का सक्रिय विस्तार करने को आमंत्रित करती है। कविता की सार्थकता तभी है जब पाठक को उसमे अपना प्रतिबिम्ब दिखे, वो उसे अपनी ही लगे। मैं पहले ही कह दूँ कि मेरी मौलिकता के लिए ये अलौकिक मापदण्ड दुस्साध्य हैं। ये कवितायें मैंने अपने लिए लिखीं हैं, अगर आपको ये अच्छी लगें या अपनी लगें तो यकीन मानिये कि यह नियति की ही एक और चाल है :-)
इति।
सतीश चन्द्र गुप्त
२५ अगस्त २०१३
बैंगलोर
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